परमात्मा के नाम का स्मरण करते हुए कष्ट उठाना ही श्रेयस्कर हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम इस तरह प्रचलित हो गये हैं कि लोग यह समझ नहीं पाते कि आखिर परमात्मा की भक्ति का कौनसा तरीका प्रभावकारी है? यह भ्रम भारत में सदियों से सक्रिय उन पेशेवर शिखर पुरुषों के कारण है जो लोगों की इंद्रियों को बाहर सक्रिय कर उनसे आर्थिक लाभ पाने के लिये यत्नशील होते हैं। समाज में अंतर्मुखी होकर परमात्मा की भक्ति करने के लिये वह उपदेश जरूर देते हैं पर उसकी जो विधि बताते हैं वह बर्हिमुखी भक्ति की ही प्रेरक होती है। भारत में गुरु शिष्य तथा सत्संग की परंपरा का इन पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने जमकर उठाया है। गुरु बनकर वह जीवन भर के लिये शिष्य को अपने साथ बांध लेते हैं। शायद ही कोई शिष्य हो जो ज्ञान प्राप्त कर इन गुरुओं के सानिध्य से मुक्त हो पाता हो। इतना ही नहीं ऐसे धार्मिक ठेकेदार अपने धर्म की दुकान भी किसी शिष्य की बजाय अपने ही घर के किसी सदस्य को सौंपते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने पूरे जीवन में धार्मिक व्यवसाय के दौरान एक भी ऐसा शिष्य तैयार नहीं कर पाते जो उनके बाद कोई संभाल सके। सत्संग के नाम पर यह अपने सामने श्रोताओं की भीड़ एकतित्र कर रटा हुआ ज्ञान देते हैं और कभी प्रमाद वाली बातें भी कर माहौल को हल्का करने का दावा भी करते हैं।